Words can create magic and I want to get lost in them for some part of each day.

April 18, 2012

नॉएडा .

कहते हैं यहाँ पैसा लगा के कोई नहीं पछताता है.
सौ गुना मुनाफा कमाता है.
जगह बड़ी पते की है .
ये और बात है कि -

अँधेरे खौफनाक हैं यहाँ के
पता नहीं कौन किसको 'rape ' कर
पान खाने , टहलने निकल चला हो .

रौशनी भी कुछ कम खतरनाक नहीं :
पता नहीं,किसने,कैसे ,किसको
गाडी तले कुचला और मुड़ के भी न देखा-

धुएं यहाँ ऐसे ज़हरीले
कि बस फेफड़े जकड लें -
'lungfill ' नहीं 'landfill ' है यहाँ .

वैसे  तो सब यहाँ बहुत अच्छा है
घर भी ,कार भी ,पैसा भी :

बिल्डिंगों  के  जंगल - 
गाड़ियाँ इतनी कि सड़क नज़र न आये ,
भीड़ इतनी कि इंसान गुम हो जाए ,
शोर इतना कि ख़ामोशी चुप रह जाए .

बहुत बढ़िया अस्पताल और स्कूल कालेज है यहाँ -
चाहे किसी रोग का इलाज खरीद लो .  
चाहे कैसी भी अक्ल हो -डिग्री और ठप्पा खरीद लो .
 समझदारी और सेहत का तो वैसे भी मार्केट down है.

यहाँ तो जी बड़ी रफ़्तार है ज़िन्दगी में - 
बस साँसों में Traffic Jam सा रहता है .

जब सुबह -शाम चींटी की सी कतारों में हम कारों के संग रेंगते हैं
तो कभी यूं ही कानों में अहमक तोतों वाले पीपल के पेड़ शोर मचाते हैं
तब न I -फ़ोन , न I -pad  में मुंह छुपा पाते हैं
बस किसी बेकार से शहर की बेकार सी बातें सोच के दिल बहलाते हैं.

वैसे पेड़ तो यहाँ भी हैं - बड़ी हिफाज़त से बचाए हैं
जैसे museum में पुरानी मूर्तियाँ सजा के रखते हैं.

एक  नदी भी शायद  जो कभी थी :
अब उसका बस प्रेत है
सुनते हैं उसके साथ जो हुआ..
किसी की माँ -बेटी के साथ न हो .
इसलिए सीने  में क़ाला विष भरे 
बेवा सी नज़र आती है.

पर malls में shopping  बहुत अच्छी है :
ऐसी कोई चीज़ नहीं जो यहाँ नहीं :फिर भी..

April 12, 2012

लोधी गार्डन .

लोधी गार्डन :

मेरी राहत -ए - जाँ ; मेरा सुकूत -ए- यास  है 
बेरुखी दिल्ली के दिल पर बिछी शबनमी घास है .

घने पेड़ ,पानी ,परिंदे ,फूल यहाँ खूब हैं 
जाने कांक्रिती जंगल में ये मंगल  कैसे महफूज़ है ?

ज़रूर कोई तिलिस्म होगा इन मकबरों और मज़ारों का -
या जादू होगा चुपचाप खड़ी पुरानी दीवारों का .

क्योंकि :

अक्सर इस शहर में ऐसी दीवारें कांच और सीमेंट तले दबी- छिपी दीखती हैं 
और हरियाली को गमलों में टांग दिया जाता है ,किसी momento की तरह .

कायम रहे यूं ही ये :

किसी हमदर्द की मेहेरबानी की तरह
सहरा में पानी की तरह 

खुदा के साथ की तरह 
दुआ के हाथ की तरह .

April 11, 2012

दिल्ली - I

कभी कभी लगता है की ये शहर इंसानों का नहीं:
गाड़ियों का शहर है

सर्र-सर्र , साँय -साँय दौड़ती
या भड- भडाती , धुआं उडाती गाड़ियाँ
हदे- निगाह  तक उमड़ती उलझती धूल उड़ाती गाड़ियाँ

कहीं रंग-बिरंगी बत्तियों और सायरनों तले बौखलाती इतराती गाड़ियाँ
कहीं  AC  के रूमानी सुकून में झूमती-झमझमाती गाड़ियाँ .
कहीं  भीड़ और गर्म हवा में बल -बलाती गाड़ियाँ  

यहाँ गाड़ियाँ सिर्फ गाड़ियाँ नहीं : पहचान हैं 
इस शहर के  बे-चेहरा लोगों के वजूद का निशान  

क्यों कि यहाँ  कोई किसी को नहीं पूछता
इसलिए सब अपनी औकात को काँधे पे  ढो कर चलते हैं
सोचते  है कि वोह  गाड़ी पे हैं : पाते हैं कि गाड़ी उनपे हैं

गाड़ियाँ :
भागते रहने पे मजबूर नस्ल का 
धोखे से भरा इत्मीनान है ..